गांधी जी में कूट-कूटकर भरी थी राष्ट्रीयता

महात्मा गांधी के जीवन का हर लम्हा समाज-निर्माण एवं राष्ट्रीयता के लिए समर्पित होता था। एक दिन वे अस्पृश्यता निवारण के संबंध में उड़ीसा में पैदल यात्रा कर रहे थे। शाम के समय पड़ाव पर पहुंच कर उनकी पदयात्रा प्रार्थना-सभा में परिवर्तित हो जाती। सभा में उपस्थित लोग उन्हें कुछ न कुछ भेंट दिया करते थे। कभी यह भेंट नकद होती तो कभी वस्तु के रूप में। प्रार्थना-प्रवचन के बाद गांधीजी उन वस्तुओं को नीलाम कर देते थे। प्राप्त राशि का उपयोग गांधीजी के कार्यक्रमों में होता था। उस दिन की प्रार्थना सभा कटक में थी। सदा की भांति लोगों ने बहुत सी वस्तुएं भेंट में दी। गांधीजी उन्हें नीलाम करने लगे। एक कुम्हार ने बाल-गोपाल (कृष्ण) की एक छोटी-सी मूर्ति भेंट में दी। भेंट में प्राप्त वस्तुओं की नीलामी के बीच भगवान कृष्ण की भी बारी आ गई। गांधी जी ने उस मूर्ति को उठाया और बोले, 'अब तुम्हारी बारी है। कलकत्ता के उद्योगपति भागीरथ कानोडिय़ा उस सभा में उपस्थित थे। वे हंसकर बोल उठे, 'बापू आपने तो कृष्ण को भी नीलामी पर चढ़ाने से नहीं बख्शा।


गांधीजी खूब हंसे, फिर बोले, 'तुम जानते नहीं, यह तो सदा ही नीलाम होता रहा है। कोई नीलाम करनेवाला और खरीदनेवाला होना चाहिए। पर कानोडिय़ा को विश्वास नहीं हुआ। गांधी जी ने कहा, 'क्या तुमने मेरा वह पद नहीं सुना- माई मैंने गोविंद लीनो मोल, कोई कहे सस्ता, कोई कहे महंगा, लीनो तराजू तोल। उस दिन सबसे अधिक कीमत उस मूर्ति की मिली। गांधी जी गंभीर पलों को भी सहज बना देते थे। गंभीर होते क्षणों में भी वे ऐसी कोई बात कह देते, जो सबके गले उतर जाती और माहौल खुशनुमा बन जाता। व्यक्ति जो स्वयं को साधारण मानता, गांधी जी उसकी प्रभुता उजागर कर देते थे। जैसे उन्होंने कुम्हार और उसकी बाल-गोपाल की मूर्ति को मूल्यवान बना दिया। आपको याद दिला दें कि महात्मा गांधी में राष्ट्रीयता कूट-कूटकर भरी थी।  उन्होंने अपना पूरा जीवन देश और मानव सेवा में लगा दिया। देश को आजाद कराने जितनी पदयात्रायें गांधी जी ने कीं शायद ही किसी ने की हों। गांधी जी के द्वारा कही गर्इं वो बातें आज भी  प्रासंगिक हैं। आज जिस तरह से वैश्विक महामारी कोरोना वायरस संक्रमणकाल में लोग कामधंधे बंद होने से विचलित हो रहे हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं अगर गांधी जी के सिद्धांतों को हम अपने जीवन में उतार लें तो कितना भी बड़ा संकट हमारे ऊपर क्यों न आया हो उसपर हम विजय अवश्य पा लेंगे। याद दिला दें, बात उन दिनों की है जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका यात्रा पर थे। उनके साथ एक घटना रेल यात्रा के दौरान घटी। इस घटना से वह बिल्कुल विचलित नहीं हुए। बल्कि उन्होंने वहीं से  देश सेवा का संकल्प लिया। और हमेशा -हमेशा के लिए आपने आपको देश और मानव सेवा के लिए समर्पित कर दिया। यहीं से महात्मा गांधी राष्ट्रपिता बन गए।  उन्होंने इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज हमें गांधी जी के  संकल्पों  की याद आ रही  है। मेरा मानना है  कि  इस  संकट की घड़ी में हमे गांधी जी की तरह धैर्य ना खोते हुए इसका सामना करना चाहिये। संकट आते हैं, चले जाते हैं, पर धैर्यवान पुरुष इन संकटों पर विजय पाने में कामयाब होता है। आपको एक चींटी की कहानी बता रहा हूं । एक दिन यह चींटी दीवार पर बार-बार चढऩे का प्रयास कर रही थी, लेकिन वह गिर जाती। इससे चींटी हताश नहीं हुई और उसने अपना प्रयास जारी रखा, अंत में उसे सफलता मिल ही गई। इससे साबित होता है हार नहीं मानने वाले की कभी हार नहीं होती है, जो जीता वही सिकंदर। आज हमे कृष्ण की मूर्ति वाली बात याद आ रही है।  गांधी जी ने जिस तरह से देश को आजाद कराने में भगवान को परखने में चूक नहीं की। उसी तरह कोरोना वायरस भी हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा है।  मेरा इशारा उन बेसहारा गरीबों की तरफ है जो  हमारी ओर मदद की आस लगाये बैठे हैं।  हमें उनका तिरस्कार नहीं करना है। हमारी छोटी से मदद फिर से इन बेवस मजदूरों के जीवन में उजाला भर सकती है।  इसी बीच मैं आपको  एक शेर सुना रहा हूं-


 राहों के अंधेरे कहते हैं, मंजिल पर उजाले भी होंगे।


जिन पांव को मंजिल चूमेगी,उन पांव में छाले भी होंगे।।


इस का अर्थ है, आज हमे कोरोना संकट से डरकर भागना नहीं है। इसका डटकर मुकाबला करना है। एक दिन हम अवश्य इस पर विजय पायेंगे। यही सीख हमें  महात्मा गांधी जी के सिद्धांतों से मिलती है। उन्होंने जीवन पर्यन्त कभी हार नहीं मानी। हुआ वही जो होना चाहिये था। हमें अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिली। यह प्रयास सिर्फ गांधी जी का नहीं था, बल्कि पूरे देश वासियों का था। जिसकी वजह से आज हम आजाद भारत में चेन की नींद ले रहे हैं।  जय हिंद, जय भारत।